हम अपनी नाकामी फतवा के पीछे क्यों छुपा रहे हैं?

अभी इस साल में काफी दिन बाकी हैं फिर भी इस साल की भारतीय उपलब्धियों की सूची उठाकर देखें तो हमेशा की तरह सूची में आधे से ज्यादा नाम आधी आबादी की नुमाइंदगी करने वाली लड़कियों या महिलाओं के हैं. चाहे हाल ही की कोई घटना उठा लें या चार पांच महीने पहले की कोई घटना.

निर्मला सीतारमण रक्षा मंत्री बनती हैं. पीवी सिन्धु एक और अंतर्राष्ट्रीय खिताब भारत की झोली में डालती हैं, लॉर्ड्स मैदान पर महिला विश्व कप के फाइनल में खेल रहीं 22 में से 11 खिलाड़ियों के टी शर्ट पर इंडिया लिखा होता है. फिल्म इंडस्ट्री से लेकर बिजनेस, राजनीति, खेल और शिक्षा तक इन्होंने अपने मेहनत और जूनून के दम पर पहचान बनाई है.

बहुत सारी उपलब्धियां आईं हैं और ध्यान रहे कि ये जितनी भी उपलब्धियां महिलाओं के खाते में आईं हैं वो उनसे जाति और मजहब पूछकर नहीं आईं हैं. बल्कि उनकी मेहनत और लगन से आई हैं.

और हम हैं कि धर्म पर ही अटके हैं. उनकी, आइब्रो, शारीरिक बनावट, उनके पहनावे पर ही अटके हुए हैं. हम कब समझेंगे कि 21वीं शताब्दी में जी रहे हैं. हम कब समझेंगे कि हम जिन उपलब्धियों का झुनझुना पीटते रहते हैं उनमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से योगदान महिलाओं का भी है.

धर्म का हवाला देकर उन पर फतवे जारी करना, उन्हें धार्मिक कर्मकांडों में उलझाए रखना कब तक चलेगा.

दरअसल, अब ये समझना होगा कि धार्मिक हठता और धर्म की अंधभक्ति मानवता और समाज के मानसिक विकास के आड़े आ जाती है, जिसका नुकसान पिछली पीढियां उठा चुकीं हैं और हम भी उठा रहे हैं।

अगर समय रहते नहीं चेते और स्त्री विरोधी मानसिकता से बाहर नहीं निकले तो धर्म और देश दोनों को वही नुकसान होगा जो दुनिया के कई धर्मों और कई देशों को हो रहा है।