The Social Dilemma: समझिए कैसे ‘गुलाम’ बना रहा है सोशल मीडिया

एक लड़की है, जो फ़ेसबुक पर अपना फ़ोटो डालती है और फिर उस पर प्रतिक्रयाओं का इंतज़ार करती है. अब उसकी ख़ुशी-नाख़ुशी उस फ़ोटो पर मिले रिएक्शंस पर निर्भर हो जाती है और मनोवाँछित रिएक्शंस ना पाकर वो परेशान हो जाती है. अपने ‘लुक्स’ को लेकर हीन-भावना से भर जाती है और अवसाद में चली जाती है और ख़ुदकुशी जैसा घातक क़दम भी उठा सकती है’ – हमें ‘कनेक्ट’ करने वाले सोशल मीडिया का यह वो स्याह पहलू है, जो हमें ख़ुद से ही ‘डिसकनेक्ट’ कर रहा है.

आभासी दुनिया में जी रहे हैं लोग

हम अपनी असली दुनिया से कटकर एक ऐसी आभासी दुनिया में जी रहे हैं, जिसे चलाने वाले सर्वशक्तिमान मुट्ठी भर टेक्नीशियन्स हैं, जिन्होंने अरबों लोगों के सोचने-समझने तक पर क़ब्ज़ा कर लिया है. हम सोचते हैं कि हमारे हाथ में तो कभी भी किसी को ‘ब्लाक’ करने की, ‘अनफ़ॉलो’ करने की या किसी को भी ‘अनइंस्टॉल’ करने की ‘च्वॉइस’ है लेकिन कहीं यह च्वॉइस हमारी ख़ुशफ़हमी तो नहीं!

अंदर की बात बताती है The Social Dilemma

नेटफ़्लिक्स की डॉक्यूमेन्ट्री (या डॉक्यू-ड्रामा) The Social Dilemma हमें सोशल मीडिया के ऐसे ही स्याह पहलुओं के बारे में बताती है. जिनमें से कुछ को तो हम जानते हैं और कुछ को बिल्कुल भी नहीं! इस डॉक्यूमेन्ट्री में फ़ेसबुक, यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम, ट्विटर और जीमेल में टॉप लेवल पर काम कर चुके लोगों के इंटरव्यूज हैं, जो हमें ‘अंदर की बात’ बता रहे हैं और इनके इस्तेमाल के ख़तरों के प्रति आगाह कर रहे हैं. निस्संदेह, सोशल मीडिया का उपयोग अच्छे कामों के लिए भी हो रहा है लेकिन उतना ही ग़लत कामों के लिए भी हो रहा है. हम जानते हैं कि सोशल मीडिया कैसे हमें जोड़ता है लेकिन हम इससे अनभिज्ञ रहते हैं कि कैसे यह हमें बाँटता है, कैसे नियंत्रित करता है कैसे मैनिपुलेट करता है. अपने मुनाफ़े के लिए इसने हमारी निजता के साथ-साथ हमारे समाज के ताने-बाने को भी ख़तरे में डाल दिया है.

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कैसे गुलाम बना रहा है सोशल मीडिया?

मसलन, 2018 की फ़ेसबुक की एक इंटरनल रिपोर्ट में यह बात सामने आयी कि फ़ेसबुक पर अतिवादी समूहों से जुड़ने वाले 64% लोगों को लगता था कि ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि फ़ेसबुक के algorithms ने उनसे ऐसा कराया! हमारे अपने देश में भी फ़ेक न्यूज़/अफ़वाह फैलाने में और मॉब लिंचिंग की घटनाओं में फ़ेसबुक और व्हॉट्सएप जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स का कितना बड़ा हाथ रहा है, यह हम सब जानते ही हैं. दुनिया भर में हुए सर्वेक्षण हमें बता रहे हैं कि राजनैतिक पार्टियों द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों को भ्रमित करने के लिए चलाए जाने वाले अभियानों में दोगुनी बढ़ोतरी हो गयी है (मुख्यतः पार्टियों की आईटी सैल द्वारा). ऐसी तमाम जानी-अनजानी बातें आपको इस डॉक्यूमेन्ट्री में देखने को मिलेंगी. साथ ही, आप देखेंगे कि कैसे अपनी ही मर्ज़ी से आप ख़ुद को इन सोशल मीडिया कंपनीज का ग़ुलाम बनाने के लिए ‘Allow’ कर रहे हैं.

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क्यों देखनी चाहिए The Social Dilemma?

अगर आपने यह डॉक्यूमेन्ट्री अभी तक नहीं देखी है तो देख डालिए. बेशक, आप इसकी कुछ बातों से असहमत हो सकते हैं या कह सकते हैं कि ‘ये तो कुछ ज़्यादा ही हो गया!’ लेकिन आपको देखनी तो ज़रूर चाहिए और अपने उन बच्चों को भी ज़रूर दिखानी चाहिए, जो दिन-रात मोबाइल पर ही लगे रहते हैं.

चलते-चलतेः अगली बार कहानी एक ऐसी फ़िल्म की, जो बनी तो लगभग 45 साल पहले थी लेकिन हमारे आज के मीडिया की हालत को हू-ब-हू बयाँ करती है.