क्या विपक्ष के पास मोदी विरोध के अलावा कोई नीति भी है?

2019 के चुनाव से पहले तमाम पार्टियां इकट्ठी होती दिखाई पड़ रही हैं। सबका सिर्फ एक उद्देश्य दिखाई दे रहा है, ‘मोदी को हराना’। गजब मसला है कि पूरा का पूरा चुनाव सिर्फ इस बात पर लड़ा जाने वाला है कि मोदी चुनाव हारेंगे या मोदी चुनाव जीतेंगे, इसमें फायदा किसी का भी हो लेकिन नुकसान सिर्फ लोकतंत्र और अंत में जनता का है। जो पार्टियां मोदी को हराने के लिए एकजुट हो रही हैं, वे जनता से यह नहीं बता रही हैं कि वे काम क्या करेंगी। वे यह भी नहीं बता रहीं कि उनका विजन क्या है। सिर्फ एक दंभ भरा जा रहा है कि मोदी को हरा देंगे।

जम्मू-कश्मीर से उमर अब्दुल्ला की नैशनल कॉन्फ्रेंस, दिल्ली से केजरीवाल, बिहार से लालू यादव की आरजेडी, पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी की टीएमसी, गुजरात से हार्दिक पटेल, कर्नाटक से एचडी कुमारस्वामी, महाराष्ट्र से एनसीपी, आंध्र प्रदेश से चंद्रबाबू नायडू, उत्तर प्रदेश से अखिलेश यादव की सपा और मायावती की बसपा और कई तमाम पार्टियां एकजुट हो रही हैं। विपक्ष की एकता खराब बात नहीं है लेकिन इस महागठबंधन का उद्देश्य कोई सकारात्मक नहीं है। कोई तय नीति नहीं है, सिर्फ एक उद्देश्य है कि कैसे भी करके मोदी को हरा दिया जाए।

देश में तमाम मुद्दों पर सवाल उठते हैं और उनपर यही लोग आपस में लड़ते रहे हैं, जो आज साथ दिख रहे हैं। सवाल यह है कि क्या इस ‘विपक्ष’ के पास कोई नीति सचमुच नहीं है या फिर वह सिर्फ इसी बात पर सिमट गया है कि कुछ भी करके पहले मोदी को हराया जाए। यहां संभव है कि इस विपक्ष का हाल वही हो जो कांग्रेस सरकार गिरने के बाद जनता पार्टी का हुआ था। अगर कहीं यह विपक्ष सरकार बना भी ले तो संभव है कि पांच साल में तीन-चार प्रधानमंत्री बदला जाए और कोई ठोस काम न हो पाए।

दूसरा सवाल यह है कि क्या इस विपक्ष के पास उन मुद्दों पर का समाधान है, जिनपर वह मौजूदा सरकार के पास घेरता रहा है। चाहे बात शिक्षा की हो, रोजगार की, कृषि की या फिर मूलभूत विकास की, इन मुद्दों पर यह विपक्ष क्या रणनीति अपनाएगा? समय आने पर अखिलेश के सामने मायावती खड़ी हो जाएंगी, कांग्रेस खुद सबसे लड़ सकती है। ऐसे में इस विपक्ष का भविष्य क्या होगा, यह इस विपक्ष के भागीदारों को भी शायद ही पता हो।