डरे हुए रवीश कुमार के लिए एक पत्रकार का खुला खत!

प्रिय रविश कुमार,

आप एक क़ाबिल और सरोकारी पत्रकार हैं। आप गंभीरता से अपना काम करते हैं और आपकी कलम कमाल बरपा करती है। सच्चाई और शोध के साथ हाशिये के विषयों पर आप ही मुख्यधारा में बोलते हुए दिखते हैं और इस विशेषण गंगा में अंतिम डुबकी इस स्वीकारोक्ति के साथ लगाता हूँ कि मैं टीवी पर समाचार चैनल देखना बंद कर चुका हूँ और अब जब भी देखता हूँ सिर्फ़ प्राइम टाइम ही देखता हूँ। क्योंकि निःसंदेह वो वह दिखाता है जो इस दौर में कोई और नहीं दिखा रहा। राग दरबारी के मौसम में आपने अपना अख़बारी राग बचा रखा है। इसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।

पर रविश जी आपका एक पक्ष मुझे अखरता है। आप अति भावनात्मक हो जाते हैं। आपका खुद को विक्टिम दिखाना अखरता है मुझे, आप खुद हो जितना असहाय बता रहे हैं, उतना आप हैं नहीं। आप देश विदेश में नाम कमा चुके सेलिब्रेटी जर्नलिस्ट हैं सर, सरकारें आप के कहे लिखे से प्रभावित होतीं हैं। देश में किसी भी पार्टी के अदने से कार्यकर्ता से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक आपको, आपके प्रभाव को, कौशल को और आपकी लोकप्रियता को जानते हैं। उस पर आपका ये कहना कि पुलिस कुछ नहीं करती है। और मैं असहाय महसूस करता हूँ। कोई मुझे चेज़ कर रहा है। मुझे ख़तरा है, आदि आदि….

देखिए मैं ये जानता हूँ जो व्यक्ति पूरी व्यवस्था की जिम्मेदारी के लिए सवाल पूछ सकता है। वो एक दरोगा का दायित्व सुनिश्चित कर उससे उसका काम भी करवा सकता है। कानून के दरवाजे से लेकर पत्रकारिता का प्लेटफोर्म तक सबकुछ है, सर. यक़ीन मानिए ये सब चीजें विक्टिम कार्ड लगतीं हैं। माफ़ करियेगा मैं ग़लत भी हो सकता हूँ। पर इससे आपकी छवि धूमिल होती है।

आप जिस निरीहता से अपनी बात कहते हैं। उतना निरीह कोई पत्रकार नहीं होता। आपने कस्बों में पत्रकारिता नहीं की है। दिल्ली में एसी कमरों की पत्रकारिता और माइक के हनक के साथ एनडीटीवी का कार्ड लिए जाना पहचाना चेहरा होने के क्रेज़ को एंजॉय करते हुए पत्रकारिता करना बेहद सरल है। संभवता आपको पहली बार गाली सुननी पड़ रही है तभी ये विचलन है। पर आपको बता दूं, कस्बों में पत्रकार पुलिस से भी उलझता है। अफसरों से भी भिड़ता है। और गुंडे भी उसे धमकी देते हैं, मारते-पीटते हैं। नेता जी गाली देते हैं, दिलवाते हैं। गिरोह हमला कर देते हैं। हत्या कर देते हैं। और पत्रकार ये सब कुछ अपने जुनून के लिए हंस कर सह जाता है क्योंकि उसे मालूम है वो पत्रकार है और ये उसके काम का हिस्सा है। और चौथा खंभा उसके इसी यकीन और साहस पर टिका है।

रविश जी, इनमें से ज़्यादातर पत्रकार, किसी हिंदी प्रताप, अमृत चेतना, प्रहरी जैसे फलान-ढिमका टाइप अखबार के पत्रकार होते हैं। जिनको कोई नहीं जानता, जिनको ज़्यादा लोग नहीं पढ़ते और जिनकी कोई इज्ज़त नहीं करता। इनके साथ कोई फ़ोटो नहीं खींचाता। इनको देख कर दफ्तर का अफसर कुर्सी छोड़ कर खड़ा नहीं होता। बहुत दुश्वारियाँ हैं रविश जी इस दस हज़ार महीने वाले पत्रकार की। इन अभागों को इसी में दूध-दही, दाल-नमक, फीस-रेंट सब करना होता है। फिर भी सीना तान कर चलते हैं और फ़क्र से कहते हैं, अबे पत्रकार हैं किसी से नहीं डरते. जो उखाड़ना है उखड लो, समझे !!

आपने इन साहसी जिद्दी पत्रकारों के साहस और ज़िद्द को ठहर कर सोचने पर विवश कर दिया है. मन में ख्याल आता है कि यार रविश जी का ये हाल है. हम फर्जी फन्ने खान समझते है खुदको. इसलिए कमर कसिये सर, मुट्ठी तानिए, और एक लड़ाई छेड़ दीजिये. ये आर पार जाएगी. ये लूडो का खेल नहीं होगा रविश जी. इसमें आबादी-बर्बादी का मामला होगा. ऐसा नहीं होगा कि रविश जी सवाल पूछेंगे और लोग हंसके जवाब देंगे और फिर रविश जी घर जायेंगे और बीबी बच्चों के साथ होटल में खाना खायेंगे, कार चलाएंगे और गाना सुनेंगे. आप बदलाव की आवाज़ बनते जा रहे हैं. अब इसे बढ़ाना है या कदम पीछे हटाना है. निश्चय आपको करना है.

यदि आप खून-पसीने वाली पत्रकारिता करना चाहते हैं, आप मुख्यधारा में हाशिये को गाना चाहते हैं तो नायकों और हाशिये वालों के जीवन की चुनौतियाँ भी आपके खाते में आएगी. लोग आपसे बेइन्तहां मोहब्बत करेंगे और बेहद नफरत भी. इतनी तैयारी करनी पड़ेगी रविश जी नहीं तो इस कार्पोरेटी मीडिया में सबकुछ के साथ थोडा सा नायकत्व पाने की चाह ऐसे ही उलझन और विचलन लाएगी.

बातें बहुत है रवीश जी, मैं जनता हूँ आपके सीने में आग है. आप एक समावेशी भारत का सपना देखते हैं. पर अब उस सपने को देखने की कीमत चुकाने की ऋतू आई है. ये परंपरा है. इस स्वप्न को देखने वालों को कीमत चुकानी ही पड़ती है. तो अब आप देश में बदलाव की आवाज को बुलंद करिए, विक्टिम कार्ड मत चलिए, मुझे काम करने दिया जाए, मैं एक सच्चा पत्रकार हूँ, वाला राग मत अलापिये, सच्चा पत्रकार होना ही परेशानी का सबब है.

फिलहाल तो आप देश भर में पत्रकारों पर हो रहे हमलों, उनकी दुश्वारियों, गालियों, धमकियों और उनकी आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा, काम करने की स्थिति, शर्तों और सैलरी के सवाल पर आर पार करिए. अगर पत्रकारिता का सितारा होने के बाद भी आप पत्रकारों को ही न्याय नहीं दिला पाए, उनकी लड़ाई ही नहीं लड़ पाए तो जज़्बे में वज़न कम वाली बात होगी. और अगर इसपर भी आप अपनी सीमायें निहारते रहे तो प्लीज़ नायकत्व का चस्का छोड़ दीजिये. क्योंकि नाखून कटा कर शहीद होने के लिए बहुत लोग हैं. और हम अपने रविश के साथ ऐसा होते नहीं देखना चाहते.

आपका
अनुराग अनंत