लाल बहादुर शास्त्री ताशकंद से जिंदा लौटते तो कभी प्रधानमंत्री न बन पातीं इंदिरा गांधी!

लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री तो बन गए थे लेकिन ठिगने कद के इस नेता की हैसियत नेहरू के उत्तराधिकारी के बतौर बेहद कमजोर नेता की थी। शास्त्री में खुद वह आत्मविश्वास नहीं था कि वह खुद को किसी भी मायने में नेहरू का उत्तराधिकारी कह पाएं। शास्त्री नेहरू को किसी देवता की तरह मानते थे। उनके परिवार का हर सदस्य भी उनके लिए उतना ही सम्माननीय था। शास्त्री भी नेहरू को बेहद प्रिय थे। यह बात शायद इंदिरा गांधी और विजयलक्ष्मी पंडित को रास नहीं आती थी। इंदिरा के शास्त्री से मतभेद तभी सियासी कानाफूसी के विषय थे, जब वह शास्त्री सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री थीं। उनकी और तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी की शास्त्री के खिलाफ लामबंदी भी खूब चर्चित थी।

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इंदिरा को मंत्री पद छिनने का था डर

कुलदीप नैयर ने अपने आत्मकथात्मक भारतीय राजनैतिक इतिहास की पुस्तक ‘एक ज़िन्दगी काफी नहीं’ में लिखा है कि शास्त्री जब ताशकंद समझौते के लिए जा रहे थे तब उन्होंने टीटीके से इस्तीफा देने के लिए कहा था। शास्त्री को लगता था कि टीटीके गांधी के साथ मिलकर उनका मज़ाक उड़ाते हैं। दोनों कैबिनेट मंत्रियों से शास्त्री के खिलाफ मोर्चा भी खोल रखा था। शास्त्री इन सबसे नाराज़ थे। इंदिरा को जब पता चला कि टीटीके पर गाज गिरी है तो उन्हें यह विश्वास हो गया था कि उनकी भी बारी आएगी। कुलदीप अपनी किताब में बताते हैं कि इंदिरा के किसी करीबी ने तो उन्हें यहां तक बताया था कि वह इंग्लैंड में बसने की योजना बना रही थीं। उन्होंने इंग्लैंड में रहने के खर्चे इत्यादि की जानकारियां जुटानी शुरू कर दी थीं। दरअसल, पाकिस्तान पर हमले के बाद अचानक से शास्त्री एक दुर्बल नेता से सशक्त प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित हो चुके थे। पार्टी में उनकी ताकत बढ़ चुकी थी और देश में भी वह काफी लोकप्रिय हो गए थे। इन सबको देखते हुए इंदिरा ने अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर तैयार रहना ही उचित समझा था। हालांकि, ताशकंद गए शास्त्री फिर दोबारा लौटकर नहीं आए। 11 जनवरी 1966 की रात 1 बजे के आसपास उनकी हृदयगति रुकने से मौत हो गई।

लाल बहादुर शास्त्री को इंदिरा गांधी से था डर

नैयर ने अपनी किताब में एक और महत्वपूर्ण बात का जिक्र किया है। इस बात से ऐसा लगता लगता है कि शास्त्री प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अपनी दावेदारी को लेकर बहुत असुरक्षित महसूस करते थे। उन्हें और किसी से नहीं इंदिरा गांधी से ही भय था। नैयर ने बताया है कि एक बार उन्होंने अमेरिकी पत्रकार वेलेस हेंजन की किताब ‘आफ्टर नेहरू व्हू’ का जिक्र करते हुए शास्त्री से पूछ लिया कि ‘आफ्टर शास्त्री व्हू’। तो इस पर जवाब देते हुए शास्त्री ने कहा कि अगर वह एक-दो साल में ‘चले’ जाएंगे तो इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनेंगी। अगर वह लंबा रुके तो वाईबी चव्हाण भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे। इंदिरा और शास्त्री के आपसी सम्बंध को एक और घटना से समझा जा सकता है कि कैसे इंदिरा प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्री को ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहती थीं।

1965 में मजबूती से खड़े हुए लाल बहादुर शास्त्री

साल 1965 में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर हमला बोल दिया था। ऐसे में भारतीय सेना के पास एक ही उपाय था कि लाहौर की ओर से मोर्चा खोल दिया जाए। 3 सितंबर 1965 को प्रधानमंत्री शास्त्री ने भारतीय सेना को पंजाब में अंतरराष्ट्रीय सीमा लांघकर पाकिस्तान में कूच करने का आदेश दे दिया। लड़ाई के बाद जब शास्त्री से पूछा गया था कि इंटरनेशनल बॉर्डर लांघने का आदेश किसका था तो उन्होंने बड़ी मजबूती से कहा कि यह आदेश उन्होंने खुद दिया था। शास्त्री के इस फैसले से सेना के अधिकारी भी दंग रह गए थे। तब सेना के एक अधिकारी ने शास्त्री के लिए कहा था कि ‘ छोटे कद के इस आदमी के इस सबसे बड़े आदेश को भारतीय सेना कभी नहीं भुला सकती।’ वहीं जब इंदिरा से यह पूछा गया कि पाकिस्तान में घुसने का फैसला किसका था तो उन्होंने शास्त्री का नाम लेने की बजाय कहा कि यह फैसला सुरक्षा मामलों पर गठित कैबिनेट समिति का था।

दिल्ली में शास्त्री की अंत्येष्टि नहीं चाहती थीं इंदिरा

शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा देश की तीसरी प्रधानमंत्री बनीं। बताया जाता है कि शास्त्री की अंत्येष्टि दिल्ली में नहीं कराने देना चाहती थीं। उन्होंने इस सम्बंध में कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज को सुझाव भी दिया था कि लाल बहादुर शास्त्री का अंतिम संस्कार उनके घरेलू शहर इलाहाबाद में कराया जाए। कामराज ने इंदिरा के इस सुझाव को सीधे खारिज कर दिया। शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री को जब यह बात पता चली कि इंदिरा गांधी शास्त्री की अंत्येष्टि दिल्ली में नहीं होने देना चाहती हैं तो उन्होंने आमरण अनशन की धमकी दे दी थी। बाद में इंदिरा को झुकना पड़ा और राजघाट के क्षेत्र में शास्त्री का अंतिम संस्कार कर समाधि बनाई गई। ललिता की एक अन्य मांग के अनुसार शास्त्री की समाधि पर ‘जय जवान-जय किसान’ भी लिखवाया गया। यह नारा शास्त्री ने 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई के दौरान दिया था, जो देश भर में खूब लोकप्रिय हुआ था।

(प्रस्तुत लेख में वर्णित तथ्य दिवंगत पत्रकार कुलदीप नैयर की किताब ‘एक ज़िन्दगी काफी नहीं’ से लिये गए हैं)