बाबा नागार्जुन: एक अल्हड़ जनकवि, जिसकी पीड़ा में पलता है भारत

जब व्यक्ति सैद्धांतिक रूप से निष्पक्ष होने लगता है तो धीरे-धीरे उसकी स्थिति बाबा नागर्जुन की तरह होने लगती है. कुछ दिन उसे गांधी पसंद आते हैं, कुछ दिन सोशलिस्ट लीडर तो कुछ दिन माओ. लेनिन भी. लेकिन हर बार वह व्यक्ति ठगा जाता है जो निष्पक्ष होता है.

निष्पक्ष व्यक्ति अगर कवि हो तो उसका नागार्जुन होना तय है. बाबा नागर्जुन. जो कवि केवल कुछ किताबें भर लिख लेने की वजह से नहीं है. जो कवि है अपने कर्मों से. आचरण से और व्यवहार से. जो अल्हड़ है. न घर-बार की फिक्र. न पत्नी की सुधि. सबसे जिसका मोह भंग हो गया हो. जब मन किया तो झोला उठाया और यायावरी के लिए निकल गया. कवि तो ऐसा ही होता है. जो किसी भी बंधन में नहीं बंधता है.

साहित्य का आनंद अल्हड़ होता है
बाबा वैद्यनाथ मिश्र ‘नागार्जुन’ हिंदी साहित्य के अर्जुन हैं जिन्होंने साहित्य के एकमात्र लक्ष्य आनंद को भीतर तक भेद दिया है. अगर आप नागार्जुन को सीधे और सपाट पढ़ेंगे तो उन्हें कह सकते हैं कि वह भाषाई स्तर पर ढीठ थे. उनका शब्दकोष देशज था. आधुनिक भी. अगर कबीर इस युग में होते तो नागार्जुन की तरह होते. नागार्जुन भाषाई तौर पर कबीर थे. इनकी भी भाषा पंचमेल खिचड़ी वाली थी.

रोया यक्ष या तुम रोए थे, बादल को घिरते देखा है, महाभिनिष्क्रमण से पूर्व, प्रतिबद्ध हूं, संबद्ध हूं, आबद्ध हूं जैसी अनेकों रचनाएं नागार्जुन की संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रतिनिधित्व करती हैं. इन कविताओं को पढ़कर लगता है कि नागार्जुन संस्कृत के बड़े विद्वान रहे होंगे. छंदबद्ध रचनाओं से मुक्त होने तक की यात्रा नागार्जुन की अद्भुत है. वह साहित्य की हर विधा में अव्वल हैं. नागार्जुन मैथिल में भी लिखते हैं. नागार्जुन अंगिका में भी लिखते हैं. उनकी भाषा में अवधी भी शामिल है. बंगाली भी से उन्हें खास परहेज नहीं है.

भाषा भाव की दासी है
संस्कृत में भी कविता लिखने में नागार्जुन सहज हैं. उन्होंने लेनिन स्तोत्रम् लिखा. देशदशकम्, शीते वितस्ता , चिनार-स्मृतिः, भारतभवनम् की भी रचना की. देशज कवि संस्कृत में भी सिद्धहस्त हो सकता है. कविताएं रच सकता है. नागार्जुन कुछ भी लिखें उनकी भाषा में एक सहज प्रवाह है. उनकी क्लिष्ट हिंदी भी सहज और बोधगम्य है.
एक कविता देखिए.

वर्षा -ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का,
देख गगन में श्याम घनघटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा.
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा,
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास, सच-सच बतलाना!
पर-पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थक कर औ ‘ चूर-चूर हो
अमल-धवलगिरि के शिखरों पर
प्रियवर तुम कब तक सोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना !
रोया यक्ष कि तुम रोए थे.

सत्ता की आंख में जो चुभे वह जनकवि

बाबा नागर्जुन हर निरंकुश व्यक्ति के धुर आलोचक थे. बाल ठाकरे की खिंचाई करते हुए उन्होंने लिखा कि
गूंज रहीं सह्याद्री घाटियां, मचा रहा भूचाल ठाकरे !
मन ही मन कहते राजा जी, जिये भला सौ साल ठाकरे !
चुप है कवि, डरता है शायद, खींच नहीं ले खाल ठाकरे !
कौन नहीं फँसता है देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे !
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे !
बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातन्त्र का काल ठाकरे !

उन्हें सच कहने आता था. सच के लिए वह किसी से भी भिड़ सकते हैं चाहे सामने लोकनायक ही क्यों न हों. उनकी कविताएं व्याकरण की दासता नहीं बजाती. नागार्जुन मुक्त कराना जानते हैं. लोकनायक के नेतृत्व में जिस संपूर्ण क्रांति की तारीफ सब कर रहे थे उसपर नागार्जुन का प्रहार था-

खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी ख़त्म नहीं होगा क्या
पूर्ण क्रांति का भ्रान्ति विलास.

नागार्जुन इतने पर ही नहीं रुके, उन्होंने लिखा-

उस दिन मार्च की छठी तारीख थी
‘लोकनायक’ उस रोज को तुम कौन थे ?
तुम्हारा भोलापन
तुम्हारी ‘लोकनीति’
सम्पूर्ण क्रांति वाले तुम्हारे सोंधे ख्याल
व्यापक जनक्रांति की तुम्हारी अनिच्छा
सर्वहारा के प्रति परायेपन के तुम्हारे भाव
अभिनव महाप्रभुओं के प्रति शक्ति-संतुलन का
तुम्हारा हवाई मूल्यबोध …..
तुम्हारी मसीहाई महत्वाकांक्षाएं
काहिल, आरामपसंद, संशयशील, डरपोक, कपटी, क्रूर
‘भलेमानसों’ से दिन-रात तुम्हारा घिरा होना
वो सब क्या था आखिर?

नागार्जुन की कविताएं श्रृंगारिक नहीं हैं. हैं भी तो कम हैं. उनकी कविताओं में पीड़ा है, वेदना है और क्रांति है. वह सत्ता का गुणगान नहीं करते, सत्ता से भिड़ जाते हैं. इंदिरा गांधी के तपते युग में उनसे कहते हैं
इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको
तार दिया बेटे को, बोर दिया बाप को.

राजनीतिक कविताओं के साथ-साथ नागार्जुन प्रकृति से भी जुड़े हुए हैं. उनके भीतर भी कोई सुमित्रा नंदन पंत बैठा है जिसे प्रकृति से संवाद करना आता है.
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

आज का कवि अपने साथ विचारधारा को ढोते हुए चलता है. राष्ट्रवादी, सत्तावादी, चाटुकार, वामपंथी, उग्रवादी होता है. लेकिन कवि नहीं होता. नागार्जुन कवि थे जो तथ्यात्मक कम और भावनात्मक ज्यादा होता है. ऐसा ही आदमी लिख सकता है-

चुप-चुप तो मौत है
पीप है, कठौत है
बमको भी, खाँसो भी, खुनको भी

तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है
इनको भी, उनको भी, उनको भी !

नागार्जुन से विश्व साहित्य भी अछूता नहीं रहा है. उन्होंने रूस के प्रसिद्ध लेखक और वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता मैक्सिम गोर्की पर भी कविता लिखी. गोर्की ने साहित्य जगत में ‘समाजवादी यथार्थवाद’ की परिकल्पना की थी. उनकी सौंवी वर्षगांठ पर यही कविता उन्होंने लिखी-

गोर्की मखीम!
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
घुल चुकी है तुम्हारी आशीष
एशियाई माहौल में
दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम।
अग्रज, तुम्हारी सौवीं वर्षगांठ पर
करता है भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम।

गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
गोर्की मखीम!

नागार्जुन की खासियत है कि उन्हें कोई अनगढ़ साहित्यकार पढ़े तो भाषाई रूप से समृद्ध हो जाए. नागार्जुन हर व्यवस्था पर प्रहार करते हैं. उनका अल्हड़ नाद किसी को भी प्रशंसक बनने पर मजबूर कर दे. सत्ता से भीड़ने-लड़ने वाले कवि नागार्जुन का नाद सदियों तक गूंजेगा. कवि मृत्यु के बाद और परिपक्व होता है. अगर कोई कवि नागार्जुन की कविताओं का सार लिख दे तो वह आधुनिक साहित्य का पुरोधा हो जाए. लेकिन कहते हैं न कि अल्हड़ बनना सबके बस की बात नहीं है.

आज बाबा नागर्जुन का जन्मदिन है. बाबा नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को बिहार के गांव में हुआ था. यह गांव मधुबनी जिले का हिस्सा है. बाबा के जन्मदिन पर उन्हें एक उपहार दीजिए, उन्हें पढ़िए. उनकी वेदना शनै: शनै: आपकी समझ में आने लगेगी जिसे एक आम भारतीय रोज जीता है.