फिल्मों को राजनीतिक अखाड़े में खींचना कितना जायज?

तमिल के सुपरस्टार विजय की पिछले दिनों रिलीज़ हुई फ़िल्म मर्सल (mersal) को लेकर खड़ा हुआ विवाद पूरा राजनीतिक रंग ले चुका है। मीडिया में चल रही खबरों के मुताबिक, ऐटली के निर्देशन में बनी यह फ़िल्म चिकित्सा में व्याप्त भ्रष्टाचार के गंभीर मुद्दे पर बनायी गयी है और यह फ़िल्म भारत और विदेशों में अच्छा व्यवसाय भी कर रही है। इस फ़िल्म में जीएसटी और नोटबन्दी जैसे मुद्दों का भी जिक्र है, जो आजकल राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनावी मुद्दा बनी हुई हैं।

तमिलनाडु के बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री राधाकृष्णन का कहना है कि इस फ़िल्म में जीएसटी और नोटबंदी जैसे मुद्दों पर गलत जानकारी दी गयी है। जिस वजह से भाजपा समर्थक इस फ़िल्म से वो सीन निकलवाना चाहते हैं। वही इस मुद्दे पर कांग्रेस को भी एक मौका मिल गया तो उसने भी बहती गंगा में हाथ धोना ही अच्छा समझा।

कांग्रेस का कहना है कि एक बार भी बीजेपी सरकार अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन कर रही है। कमल हासन ने भी फ़िल्म का समर्थन कर दिया है और इशारों-इशारों में भाजपा को लपेटे में ले लिया है।

अब बात फ़िल्म की क्योंकि ये एक फ़िल्म ही है, कुछ लोगों द्वारा बनायी गयी एक फ़िल्म जो दर्शकों के लिए बनायी गयी है लेकिन जहां राजनीतिक महत्वाकांक्षा की बात आती है, सबको अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकनी ही होती हैं। मीडिया की खबरों के मुताबिक, फ़िल्म में भारत और सिंगापुर के जीएसटी की तुलना की गयी है और कई ऐसे मुद्दों का ज़िक्र किया गया है जो पिछले दिनों देश में चर्चित मुद्दे थें।

फ़िल्म बनायी गयी है मनोरंजन के साथ सन्देश देने के लिये और इसे फ़िल्म ही रहने दिया जाये तो बेहतर है। फ़िल्म के कंटेंट से सहमति और असहमति की जिम्मेदारी दर्शकों पर ही छोड़ दी जाये तो बेहतर है। इसे राजनीतिक अखाड़े में घसीटना ठीक नहीं।