दिल्ली के बाद सुधरेगी भाजपा? या गुजरेगी भाजपा?

दिल्ली विधानसभा चुनाव को भाजपा (BJP) और अमित शाह ने सम्मान की लड़ाई बना दिया। इसके बावजूद वह कुछ खास नहीं कर सकी। जहां अरविंद केजरीवाल ने इसे स्कूल, अस्पताल और बिजली-पानी का चुनाव बताया। वहीं, बीजेपी लगातार शाहीन बाग, राम मंदिर और देशप्रेम-देशद्रोह जैसे मुद्दों पर लड़ती रही। आखिरी हफ्ते में तो बीजेपी की ओर से आक्रामक और जहरीली बयानबाजी होने लगी। इस सबका असर यह हुआ कि जहां उसे 10-15 सीटें आसानी से मिल सकती थीं, वहीं उसे सिर्फ आठ सीटों से संतोष करना पड़ा।

बीजेपी में गिरिराज सिंह, कैलाश विजयवर्गीय, योगी आदित्यनाथ और कपिल मिश्रा जैसे नेता सिर्फ बयानवीर साबित हो रहे हैं। पार्टी और सरकार में बड़ा ओहदा रखने वाले गिरिराज सिंह परफॉर्मेंस के नाम पर शून्य हैं। योगी आदित्यनाथ सबसे बड़े राज्य के सीएम हैं लेकिन केजरीवाल के मोहल्ला क्लीनिक और फ्री बिजली-पानी मॉडल के सामने वह सिर्फ ‘गोलीमार’ मॉडल ही रख पाए।

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राज्य दर राज्य हारती जा रही है भाजपा

दिल्ली सिर्फ एक उदाहरण भर है। इससे पहल मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब के अलावा गुजरात और कर्नाटक में भी भाजपा का बुरा हाल हुआ है। कारण यही है कि भाजपा स्थानीय मुद्दों के बजाय केंद्रीय मुद्दों और स्थानीय नेताओं के बजाय सिर्फ मोदी के नाम पर चुनाव लड़ना चाहती है। खैर, मोदी का नाम उसके लिए एक मजबूरी भी बन गया है। मोदी को हीरो बनाते-बनाते भाजपा के पास अब सिर्फ मोदी ही हैं।

ऐसे में बिहार और बंगाल जैसे राज्यों में उसके लिए मुश्किल हो सकती है। बिहार में जहां बीजेपी नीतीश कुमार के आगे पहले सी नतमस्तक है, वहीं बंगाल में उसे सिर्फ ध्रुवीकरण की राजनीति का सहारा है। दिल्ली के नतीजों ने केजरीवाल के काम मॉडल पर तो मुहर लगाई ही है, उसने हिंदू-मुस्लिम अजेंडा को काफी हद तक नकारा भी है। ऐसे में बीजेपी के लिए जरूरी है कि वह ‘राष्ट्रवादी’ अजेंडे को थोड़ा किनारे रखते हुए काम भी करे।

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