ज़िंदा क़ौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं

नहीं पता कि नौजवान पीढ़ी लोहिया को कितना जानती है। ये भी नहीं पता की 90 के दशक या उसके बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी जिसने समाजिक मूल्यों  के हर पहलू में गिरावट देखी हो, वो लोहिया को कैसे याद करती है। करती भी है या नहीं इसमें सन्देह है।

समाज को आईना दिखाने वाली राजनीत का अजब गजब दौर चल रहा है। सत्ता धार्मिक राष्ट्रवाद के घोड़े पर सवार होकर विश्व विजय के अभियान पर है। विपक्ष होते हुये भी पंगु है। वर्तमान परिद्रश्य में लोकतंत्र के लिये आवश्यक कोई संस्था या संस्थान सत्ता को चुनौती देता नजर नहीं आ रहा है। ‘चेक ऐंड बेलेंस’ लोकतंत्र का बुनियादी मंत्र जिसको कोई याद नहीं रखना चाहता।

लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्थाए ही उसकी जड़ें खोदने में लिप्त दिखाई देती हैं। आम आदमी से लेकर न्यायपालिका तक सभी सत्ता का गुणगान कर रहे हैं और इसमें साथ दे रहा है भांड मीडिया। लोकतन्त्र का चौथा खंबा जिसपर जिम्मेदारी है इन सबको एक साथ सीधी रेखा में लेकर चलने की ताकि जनता जनार्दन की समस्याओं को सामने रख उसका निदान करने के लिये सत्ता को जिम्मेदार बनाया जा सके।               भारतीय राजनीति का वो स्वर्णिम दौर रहा होगा जब अकेले लोहिया सम्पूर्ण विपक्ष थे। लोहिया कहा करते थे अगर आप बदलाव चाहते हैं तो सडकों पर आइये, 5 साल तक सरकार के भरोसे बैठने से कुछ नहीं होने वाला।

इन्सान जिन्दा कौम है और “जिन्दा कौमें 5 साल तक इन्तजार नहीं किया करतीं”। राजनीति का ये वो दौर था जब नेहरु जैसे विशालकाय महामानव राजनीति के पटल पर छाये हुये थे। ये कांग्रेस और नेहरु का स्वर्णिम दौर था। स्वतंत्रता संघर्ष में तपकर निकली कांग्रेस और गांधी के विश्वास पात्र नेहरु सत्ता के केंद्र में थे। किसी को उम्मीद नहीं थी कि कोई नेहरु को भी चुनौती दे सकता है। लोहिया ने ऐसा किया। “तीन आने” की बहस जिसने नेहरु को घुटनों के बल ला दिया। जनसरोकार से जुड़ी बहसों में आज तक की शानदार बहसों में से एक मानी जाती है।

लोहिया अपनी तमाम उम्र क्रान्ति के पक्षधर रहे गांधी की तरह की अहिंसक,रक्तहीन क्रान्ति जो बदलाव ला सके। आजाद भारत में आंदोलन और लोहिया एक दूसरे के पर्याय थे। लोहिया केवल आंदोलन करके बैठने वालों में से नहीं थे बल्कि उसके परिणाम भी प्रप्त करना चाहते थे। समाज में प्रचलित हर बुराई के लिये आंदोलन करना चाहते थे ताकि जो समाज इन कुरीतियों से पीड़ित है जब वो स्वयं आगे आकर इन बुराइयों से लड़े तभी कुरीतियों की जंजीर को तोड़ा जा सकेगा और इनसे मुक्ति मिलेगी।

जेल भरो, रेल रोको, अंग्रेजी नाम वाली पट्टियों को पोतो, जाति तोड़ो आदि आन्दोलन थे जिनके लिये लोहिया ने संघर्ष किया। लोहिया अंग्रेजी को शोषक शाषक वर्ग की भाषा मानते थे जिसका आमजन से कोई सरोकार नहीं था। ऐसा नहीं कि उन्हें अंग्रेजी आती नहीं थी असल में उन्हें अपनी मात्र भाषा से प्यार था बेहद प्यार । मात्र भाषा से प्यार की वजह जर्मनी में शिक्षा ग्रहण करते हुये वे जब अपने प्रोफेसर के सामने साक्षात्कार के लिये गये और अंग्रेजी में साक्षात्कार दिया लेकिन जब प्रोफेसर जोम्बर्ट ने यह कहा कि उन्हें सिर्फ जर्मन भाषा आती है।

अपने देश को प्यार करने वाले स्वाभिमानी व्यक्ति के लिये ये लज्जाजनक बात थी। लोहिया द्वारा शुरु किया गया अंग्रेजी विरोध का आंदोलन तो स्वतंत्रता के बाद का सबसे बड़ा और तीखा आंदोलन था जिसको पूरा उत्तर भारत समर्थन कर रहा था। रेल रोकोराम मनोहर लोहिया हिंदुस्तान की सिद्धान्तविहीन राजनीति का एक ऐसा सिद्धान्त जिस पर चलकर हिन्दुस्तान अपनी समस्याओं का हल पा सक्ता है। खाँटी समाजवादी गांधी और मार्क्स के बीच का रास्ता जिसके किसी भी कौने पर खड़े होकर देखा जाये तो बस हिन्दुस्तान नजर आता है।

भारतीए राजनीति का आखिरी दार्शनिक जिसके  पूरे चिंतन में भारत की समस्याएं शामिल रहीं। वे दार्शनिक अकेले नहीं थे बल्कि वे कर्मयोगी भी रहे जिन्होने बदलाव के लिये सड़क से लेकर संसद तक रुख अख्तियार किया। सड़क पर अंग्रेजी विरोध का आंदोलन हो या फिर संसद में तीन आने बनाम पन्द्रह आने की बहस सभी लोहिया के कर्मयोग की बानगी हैं। अंग्रेजी विरोध का आंदोलन आजादी के बाद पहला राष्ट्रव्यापी आंदोलन है जिसको पूरे उत्तर भारत का समर्थन हासिल था।