कौनसा ईश्वर/अल्लाह है जो बिना लाउडस्पीकर नहीं सुनता?

लाउडस्पीकर का आविष्कार करने वाले ग्राहम बेल ने कभी सोचा नहीं होगा कि उनका ये आविष्कार कई विवादों का कारण बनेगा. कभी अजान से तो कभी मंदिर के घंटे से किसी न किसी की नींद खराब हो ही जाती है. मजेदार ये है कि कभी भी तेल बेचने वाले लाउडस्पीकरों और नेताओं के भौंड़े वादों से किसी को समस्या नहीं होती है.

लाउडस्पीकर पर अजान से समस्या

ताजा मामला इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का है. कुलपति संगीता श्रीवास्तव ने शिकायत की. शिकायत में कहा गया कि सुबह-सुबह मस्जिद की अजान की वजह से आने वाले आवाज़ उनकी नींद में खलल डालती है. कुलपति महोदया की शिकायत के बाद मस्जिद ने अपनी आवाज कम की. आईजी ने बाकायदा फरमान जारी किया कि रात के 10 बजे से सुबह 6 बजे तक स्पीकर नहीं बजाए जाएंगे.

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कानून बड़े लोगों की अक्सर सुन लेता है. वो भी बहुत जल्द ही. सामान्य लोग हजारों की संख्या में ध्वनि प्रदूषण की वजह से बीमार होते हैं और कुछ लोगों की मौत भी होती है. अक्सर बोर्ड परीक्षा के समय तेज आवाज वाले डीजे की आवाज से बच्चे पढ़ नहीं पाते. छोटे जानवर दुबके रहते हैं. पटाखों की आवाज़ की वजह से कई प्राकृतिक संरचनाओं को नुकसान पहुंचता है. हालांकि, हम लोगों को इससे फर्क नहीं पड़ता है. क्योंकि इनमें मसाला नहीं है. फर्क तब पड़ता है, जब ये आवाज किसी धार्मिक स्थल से आती हो.

तमाम तेज़ लाउडस्पीकरों से हमें फर्क नहीं पड़ता

तेज़ आवाज, तेज धमक वाली आवाज और कानफाड़ू संगीत हमारे लिए आम हो गए हैं. शादी-ब्याह, कोई शुभ अवसर, राजनीतिक रैलियां, शोभा यात्रा, विजय जुलूस और न जाने कितने आयोजनों में स्पीकर और डीजे का इस्तेमाल होता है. इतनी तेज आवाज से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. प्रशासन भी एक सामान्य नोटिस निकालकर अपना काम पूरा कर देता है.

अब यहां सवाल यह है कि इनका औचित्य क्या है? अजान, आरती, गुरबानी या प्रेयर को लाउडस्पीकर पर करने की ज़रूरत ही क्या है? आस्था से जुड़ी चीजें बिना स्पीकर पर भी तो की जा सकती हैं न! लाखों की भीड़ में स्पीकर का इस्तेमाल समझ आता भी है और वह प्रैक्टिकल भी है. लेकिन जब अजान करने वाले सभी लोग मस्जिद में ही हों या आरती करने वाले लोग मंदिर में ही हों तो लाउडस्पीकर की क्या ज़रूरत है?

प्रशासन के बस की बात नहीं है लाउडस्पीकर हटवाना!

क्या ऊपरवाला इतना कमजोर है कि वह आपकी आवाज़ नहीं सुन सकता? हमें आम इंसान के तौर पर ही इसका फैसला करना होगा. धर्मों और जातियों के हिसाब से फैसले लेने वाली राजनीतिक पार्टियां और उनके अधीन काम करने वाला प्रशासन इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठा सकता. कानून बना भी दिया जाए तो उसे लागू नहीं करा पाएंगे. क्योंकि उन्हें किसी को नाराज़ नहीं करना. आपको धर्म का प्रचार करना है तो इतना समझ लीजिए कि स्पीकर पर आरती या अजान सुनकर कोई भी व्यक्ति धार्मिक या नैतिक नहीं हो सकता है.

अगर आप सचमुच मंदिरों और मस्जिदों धर्म प्रचार और समाज सुधार का जरिया बनाना चाहते हैं, तो वहां लाइब्रेरी बनाइए. युवाओं को संस्कारों के नाम रूढ़िवादी नहीं खुली सोच का बनाइए. जो धर्म के आगे भी सोच सके. किसी भी स्वस्थ समाज और अच्छी वैचारिकता से सामने लाउडस्पीकर जैसी चीज़ें बहुत छोटी हैं. उदाहरण के लिए समझिए- गौतम बुद्ध ने अपने धर्म को एशियाई महाद्वीप में सबसे बड़े स्तर पर विस्तारित किया और वह भी बिना किसी स्पीकर के.