गरीब, मजदूर-किसान के बच्चों का IIMC आना सख्त मना है

दुनिया के हक की लड़ाई लड़ने वाले लोग, अक्सर खुद की लड़ाई में बेहद अकेले होते हैं, उनके साथ कोई खड़ा नहीं होता. मीडिया की पढ़ाई करने वाले छात्रों का हाल भी कुछ ऐसा है. एक पत्रकार की सैलरी के अलावा काम करने की वजह से जनसेवा होती है. सिर्फ सैलरी के लिए उसे काम करना होता तो बहुत से काम ऐसे हैं जिनमें पत्रकारिता से ज्यादा, कहीं ज्यादा पैसा है. वहां भी काम वे कर सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता के लिए वे टिके भी हैं तो जनता के लिए.

जो जनपत्रकारिता नहीं कर पा रहे हैं उन्हें डेस्क पर बैठे-बैठे अफसोस होता है. उन्हें लगता है कि डेस्क पर नहीं, हमें ग्राउंड पर होना चाहिए. ग्राउंड पर होने वाले पत्रकारों की प्रजाति खतरे में हैं. लेकिन जो डेस्क पर बैठे हैं उन्हें अफसोस होता है कि हम यहां क्यों हैं. नेपथ्य में रहना किसी को जंचता नहीं है, लेकिन वे खुद छिपकर देश और दुनिया की तमाम झूठी-सच्ची खबरें आप तक पहुंचा रहे होते हैं. जनता का ही काम कर रहे होते हैं वे भी. भले ही दूसरों के एजेंडे पर. बात उनकी करनी है.

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पत्रकार बनने की ट्रेनिंग देने वाले सरकारी संस्थान गिनती के हैं. जो प्राइवेट संस्थान हैं, वहां सामान्य वर्ग का बच्चा कभी सोच भी नहीं सकता पढ़ना तो बेहद दूर की बात है. लाइट, कैमरा और पीटूसी के चक्कर में एंकर बनने का सपना दिखाने वाले इन संस्थानों में फीस 6 लाख से ऊपर है. तीन साल के कोर्स में अभिभावकों का अच्छा खासा पैसा डूबता है.

सरकारी संस्थानों का हाल भी करीब-करीब ऐसा है. भारतीय मीडिया के चोटी के संस्थानों में से एक भारतीय जन संचार संस्थान में पढ़ना हर पत्रकारिता की चाह रखने वाले बच्चे का सपना होता है. सपना इसलिए कि हजारों की संख्या में लोग फॉर्म भरते हैं. लिखित परीक्षा पास होने के बाद इंटरव्यू के लिए बुलाया जाता है. बहुत से बच्चे पहली स्टेज नहीं पार कर पाते हैं, जो पार कर लेते हैं, उनका इंटरव्यू होता है. वहां से भी कुछ चुनिंदा बच्चों का एडमिशन होता है.

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अंग्रेजी पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता, रेडियो और टीवी पत्रकारिता के साथ-साथ विज्ञापन एवं जनसंपर्क का भी कोर्स कराया जाता है. यहां बीते कई वर्षों में तेजी से फीस बढ़ी है. उतनी तेजी से चंद्रयान भी चांद तक नहीं पहुंचा था.

एंट्रेस निकालने के बाद भी कई बच्चे महज इसलिए यहां से पढ़ाई नहीं कर पाते क्योंकि यहां की फीस बेहद ज्यादा है.
यहां फीस मंहगी नहीं होनी चाहिए. क्योंकि इस संस्थान के पीछे बैकअप सूचना और प्रसारण मंत्रालय का है. मंत्रालय के आधीन यह एक स्वायत्त संस्थान हैं. सरकारी संस्था होने की वजह से यहां फीस इतनी मंहगी नहीं होनी चाहिए. सरकारी संस्थान है तो छात्रों का ख्याल भी सरकार को रखना चाहिए. लेकिन ख्याल तो दूर यहां की फीस इतनी महंगी है कि आम आदमी गले तक कर्ज में डूब जाए पढ़ने के लिए. और अब तो कर्ज भी पैसे वालों को मिलते हैं.

भारतीय जन संचार संस्थान में इस वर्ष(2019-2020) की फीस बेहद ज्यादा है. हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता के छात्रों की फीस इस साल 95,500 रुपये रही, वहीं आरटीवी के छात्रों की फीस 1,68,500 रुपये रही. एड एंड पीआरके छात्रों की फीस इस बरस 1,31,500 रही. सोचकर देखिए, पत्रकार बनना कितना मंहगा हो गया है.

फीस हाइक के खिलाफ धरने पर बैठे छात्र

एक आम आदमी जिसकी कमाई 6 हजार से 12 हजार के बीच में है, सोच भी नहीं सकता है कि वह अपने बच्चे को यहां पढ़ा लेगा. कहां से पढ़ा लेगा. भारत धनाढ्यों का देश है, लेकिन एक बड़ी आबादी, लगभग निर्धन है, जो इतनी मंहगी फीस अफोर्ड नहीं कर सकती. हमेशा से यहां इतनी मंहगी फीस नहीं रही है. 10-10 परसेंट करके इतनी बढ़ा दी गई है कि अब यहां एडमिशन लेना एक गरीब परिवार से आने वाले छात्र के लिए नामुमकिन हो गया है.

किस साल कितनी बढ़ी फीस?

साल 2015-16 में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता के कोर्स की फीस 60,000 रही. एड एंड पीआर की फीस 85,000 रुपये रही. आरटीवी के छात्रों की फीस 1,10,000 रही. इस साल भी कई बच्चों ने परीक्षा पास करने के बाद भी एडमिशन इसलिए नहीं लिया, क्योंकि इतनी फीस अफोर्ड नहीं कर सकते थे.

साल 2016-17 में हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारिता की फीस 66,000 रुपये, आरटीवी के छात्रों को फीस 1,20,000 रुपए और एड एंड पीआर की फीस 93,500 रुपए रही. इस साल भी लोगों ने एग्जाम पास होने के बाद भी एडमिशन नहीं लिया, क्योंकि फीस बेहद ज्यादा रही.

फीस हाइक के खिलाफ छात्र विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
(ऑल फोटो क्रेडिट- गौरव श्यामा पांडेय)

2017-18 में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता के छात्रों की फीस 72000 रुपए, आरटीवी की फीस 1,32,000 रुपए, एड एंड पीआर की फीस 1,02,000 रुपए रही. साल 2018-19 हिंदी-अंग्रेजी की फीस 79,000 रही, रेडियो और आरटीवी की फीस 1,45,000 रुपए, एड एंड पीआर की फीस 1,12,000 रुपए रही. आमतौर पर यह धारणा रहती है कि सरकारी संस्थानों में फीस इतनी मंहगी नहीं होगी, जिसे आम आदमी अफोर्ड न कर पाए.

मंत्रालय के आधीन चलने वाले संस्थान की हालत यह है. भारतीय जनसंचार संस्थान से पढ़ाई करने वाले ज्यादातर बच्चे यूपी, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान के हैं. यहां की औसत आय गूगल कीजिए. रोजगार का औसत देखिए. गरीब, मजदूर और प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले लोगों के बच्चे बड़े-बड़े संस्थानों को देखकर टीस भर सकते हैं, अफसोस कर सकते हैं, पढ़ नहीं सकते. लोन ले लें तो उसे भरने में आधी जिंदगी चली जाए. जहां संस्थान की फीस लाख रुपये है, सोचकर देखिए रहने का खर्चा कितना आता होगा. पढ़ाई के तत्काल बाद रोजगार लग जाए, इसकी गारंटी नहीं है. लग भी जाए तो शुरुआती सैलरी इतनी नहीं होती है कि आदमी अपना पेट भरे या कर्जा.

धनाढ्यों के देश में गरीबों की नियति अनपढ़ रहने की है क्या? सरकार सच में पूंजीपतियों के लिए काम करती है क्या?

गरीब और मजदूर के बच्चे आईआईएमसी न आएं.

कब से प्रोटेस्ट कर रहे छात्र?

3 दिसंबर से इसी संस्थान में पढ़ने वाले छात्र बढ़ी हुई फीस के खिलाफ धरने पर बैठे हैं. छात्रों की मांग है कि बढ़ी फीस कम की जाए. हॉस्टल की फीस भी करीब 7500 रुपये है. इसमें खाना और रहना दोनों शामिल है. छात्रों के साथ खड़े होने का वक्त है. छात्रों के विरोध प्रदर्शन का तरीका बेहद सुंदर है. धरने पर बैठे छात्र दिन भर पढ़ते हैं, रात में भी पढ़ रहे हैं. छात्रों ने संस्थान के गेट बाहर एक तख्ती लगाई है, गरीबों के बच्चों का प्रवेश वर्जित है. कहीं बोर्ड लगाए गए हैं कि गरीब हैं, पटना से पैदल चलकर आए हैं, फीस नहीं भर पाए…सपना अधूरा रह गया.

देश के भावी पत्रकारों का प्रदर्शन है. साहित्य से लेकर समाज तक का दर्शन झलक रहा है. रात में चद्दर ओढ़े बच्चे किताबें पढ़ रहे हैं, जनकवियों की रचनाएं गा रहे हैं. फैज, हबीब जालिब…कैफी आजमी…इकबाल गाए जा रहे हैं. मांग इतनी सी है हर वर्ग के लोग अपने बच्चों को इन संस्थानों में पढ़ सकें.

साल-2016-17 बैच के कई ऐसे बच्चे थे जिन्होंने लोन लेकर पढ़ाई की थी. तब हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता की फीस 66,000 रुपये थी वहीं आरटीवी के छात्रों की फीस 1,20,000 रुपये थी. कुछ बच्चे ऐसे भी थे जिन्हें अगर छात्रवृत्ति न मिलती तो पढ़ाई बीच में ही छोड़कर निकल जाते. कुछ बच्चे बेहद गरीब तबके से रहे, जिन्होंने जैसे-तैसे फीस भरी थी. आज फीस तीस हजार से ऊपर बढ़ गई है. आम आदमी की कमाई नहीं बढ़ी है, फीस बढ़ती जा रही है. कौन यहां अपने बच्चे को पढ़ा सकेगा? हां, नौकरी लगने के बाद भी लोन भर ले जाएं….इतनी पत्रकारों की शुरुआती सैलरी नहीं होती है.

दुनिया के हक के लिए खड़े होने पत्रकार, भावी पत्रकार अपने हक के लिए खड़े हैं….ये कलमकार हैं….कलम की सीख देने वाले संस्थानों तक आम आदमी की पहुंच होनी चाहिए…खास आदमियों के लिए तो दुनिया जहान है.

पढ़ाई महंगी होगी, तो लोग अनपढ़ रहेंगे. लोग अनपढ़ रहेंगे तो कुपढ़ बनेंगे. कुपढ़ बनेंगे तो देश चौपट होगा. 5 ट्रिलियन की इकॉनमी बनने का सपना मोदी जी देख रहे हैं, उसमें क्या वर्ल्ड बैंक से लोन लेकर पढ़ने का भी प्रावधान शामिल है? संस्थानों की बढ़ी हुई फीस का इशारा तो कुछ ऐसा ही है.