मूर्तियां तोड़ने/बनाने से विचारधारा खत्म/स्थापित हो जाती है?

त्रिपुरा में लेफ्ट और राइट की लड़ाई के कुछ प्रत्याशित परिणाम नजर आने लगे हैं। पहले बीजेपी नेता हेमंत बिस्व शर्मा ने त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री को केरल या बांग्लादेश चले जाने की सलाह दी फिर कुछ उपद्रवियों द्वारा त्रिपुरा के बेलोनिया में व्लादिमीर लेनिन की मूर्ति को ढहा दिया गया, जिसे एक बीजेपी नेता ने ट्वीट कर समर्थन दिया। बाद में उन्होंने अपना ट्वीट डिलीट कर लिया।

लेफ्ट और राइट की लड़ाई सदियों पुरानी है। दोनों पंथ एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें मारा जा रहा है। केरल और त्रिपुरा में यही दावे लंबे समय से बीजेपी करती आ रही है। अब जैसे ही त्रिपुरा में बीजेपी सत्ता में आई तो उसी का ‘बदला’ लिया जाने लगा है। यहां सवाल यह बनता है कि क्या किसी की मूर्ति बनाने से उसके विचारों का विस्तार किया जा सकता है या फिर किसी की मूर्तियां तोड़ देने से उसके विचार खत्म किए जा सकते हैं।

सबसे बदनसीब तो गांधी हैं
जहां तक मेरी समझ जाती है, गांधीवाद से ज्यादा शांतिप्रिय और भाईचारे वाली विचारधारा कोई नहीं होगी लेकिन आज गांधीवाद कहां है। भारत के गांधी की मूर्तियां ना सिर्फ भारत में लगीं बल्कि विदेशों में भी गांधी को अपनाने की कोशिश की गई। आज गांधी के इस देश में 200 रुपये के चावल चुराने के जुर्म में एक युवक को पीट-पीटकर उसकी हत्या कर दी जाती है। गरीबी से देश को उबारने की कोशिश में एक कपड़ा पहनने वाले गांधी के देश में करोड़ों में सूट नीलाम होते हैं। क्या हुआ उनकी हजारों मूर्तियां देश में लगी हैं तो? या कल को गांधी की ये मूर्तियां तोड़ ही दी जाएं तो किसी को क्या फर्क पड़ेगा?

चोर-बेईमानों की मूर्तियां नहीं लगतीं
किसी चौराहे पर कभी चोरों-बेईमानों की मूर्तियां नहीं लगा करतीं लेकिन उनकी ‘विचारधारा’ ज्यादातर लोगों के मन में कूट-कूटकर भरी होती है। यही चोर कहीं सत्य और अहिंसा के पुजारी गांधी की मूर्ति के नीचे बैठकर उनके सिद्धांतो की बलि देते हैं। देश के नेता सफेद कपड़ा पहन गांधी की विरासत में मिली आजादी को सत्ता के लिए बेचते हुए गांधी को माला पहनाते हैं।