मासूमों के कत्लों पर आपके मन में सवाल नहीं उठता?

बीते हफ़्ते की दो घटनाएँ, बक्सर के डीएम मुकेश पांडे की आत्महत्या और गोरखपुर में 60 से ज़्यादा बच्चों की मौत. इन घटनाओं ने हमारे सामने कुछ ऐसे सवाल खड़े किए हैं, जिनका जवाब हमें समय रहते ढूँढ लेना चाहिए. इन सवालों के जवाब आधार कार्ड से भी ज़्यादा ज़रूरी हैं. अगली बार हमारी तथाकथित इंसानियत की लाश किसी अस्पताल के बाहर न पड़ी हो, इसलिए इन सवालों के जवाब उस ऑक्सीज़न से भी ज़्यादा ज़रूरी हैं, जिसकी वजह से गोरखपुर में इतने मासूमों की जान गई. इन सवालों के घेरे में हमारे देश का सड़ चुका सिस्टम भी है और एक इन्सान के तौर पर हमारी अपनी प्रासंगिकता भी.

पहला सवाल डीएम मुकेश पांडे के उस वीडियो से उभरा, जिसे उन्होंने आत्महत्या से पहले रिकॉर्ड किया था. इस वीडियो में मुकेश कहते हैं, “बेसिकली मैं ख़ुद ही ज़िन्दगी से फ्रस्टेट हो चुका हूँ. और मुझे नहीं लगता कि हम ह्यूमंस कुछ बहुत ही ज़्यादा कॉन्ट्रीब्यूट कर रहे हैं. हम अपने आपको बहुत ज़्यादा सेल्फ़ इम्पॉर्टेंस देते हैं कि हम ये कर रहे हैं… वो कर रहे हैं. लेकिन जब आप पूरे यूनिवर्स में अपने आपको इमैजिन कीजिएगा और जो यूनिवर्स की जर्नी(यात्रा) रही है, उसमें कितने लोग आए और कितने लोग चले गए, तो आपको पता चलेगा कि हमारा जो अस्तित्व है, उसका कुछ मतलब नहीं हैं.”

परेशानी कितनी बड़ी हो, आत्महत्या को किसी भी दृष्टि से सही नहीं ठहराया जा सकता. ये एक कायरता भरा कदम था. मगर क्या मुकेश के मन में उठे इन सवालों का कोई जवाब है आपके पास? क्या सच में हम इन्सान भविष्य की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए कुछ कंट्रीब्यूट कर रहे हैं? हम अपने आस-पास ही देखें तो 99% लोग केवल दो वक़्त का भोजन और मूलभूत सुविधाएँ जुटाने में ही पूरी ज़िन्दगी खपा देते हैं. ऐसे में किसी गंभीर बीमारी ने जकड़ लिया, तो परिवार या तो कर्ज़ के बोझ से मर जाता है या बीमारी से. जब वर्तमान में जीने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़े, तो किसे फुर्सत है कि भविष्य के बारे में कुछ सोचे. विज्ञान की तमाम प्रगति ने ज़िन्दगी को आसान तो बनाया है मगर केवल तभी तक, जब तक आपके जेब में पैसे हैं.

दूसरा सवाल तब उभरा जब गोरखपुर के एक सरकारी अस्पताल में प्रशासन की लापरवाही की वजह से 60 से ज़्यादा बच्चे मर गए क्योंकि उन्हें सही समय पर ऑक्सीजन नहीं मिली. ’60 से ज़्यादा बच्चे मर गए’ ये बात सुनकर आपका दिल नहीं फट जाता? अगली बार जब आप हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करके, मंगल ग्रह पर जीवन की खोज करेंगे, तो ये परिवार कैसे ख़ुशी मनाएँगे, जिनके बच्चे धरती पर जीवन होने की सबसे प्रबल शर्तों के बीच भी मर गए? करोड़ों-अरबों रुपये के घोटाले, गबन और फ़िज़ूलखर्ची के बीच जब 66 लाख रुपये की वजह से 66 से ज़्यादा परिवार अपने मासूम बच्चों को खो दें, तो हमारे सड़ चुके सिस्टम पर सवाल उठना लाज़मी है. एक पल को उस शख्स के दर्द को महसूस कीजिएगा जिसकी इकलौती औलाद इस लापरवाही में मर गई और यहीं से जिसके वंश का अंत हो गया. क्या ये सब देखकर मुकेश का सवाल आपको जायज़ नहीं लगता? क्या सच में हम इन्सान धरती पर इसलिए आए हैं कि पैदा हों, ज़िन्दगी से संघर्ष करें और मर जाएँ? क्या सरकार हमें भोजन, स्वास्थ्य और मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं दे सकती?

मुकेश कायर थे, जो परिस्थितियों से हार गए और आत्महत्या का विकल्प चुन लिया. ज़्यादातर लोग अपनी तमाम परेशानियों से लड़ते हुए भी जीते हैं. जीते हैं, क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि उनकी आने वाली पीढ़ियों के अच्छे दिन आएंगे. मगर फिर एक दिन अचानक किसी सरकार की छोटी सी लापरवाही से उनके मासूम सपनों कि हत्या हो जाती है. फिर कोई ‘मुकेश’ सबसे कठिन परीक्षा पास करके आईएएस के पद पर पहुंचता है, मगर ज़िन्दगी की परीक्षा में हार जाता है. फिर कोई मंत्री कह देता है कि ‘अगस्त में तो हर साल लोग मरते हैं. हम उच्च स्तरीय जांच करवाएंगे.’ सवाल कोई नहीं पूछता कि अगस्त हो या सितम्बर, ग़रीबों के बच्चे ही क्यों मरते हैं?