तो क्या केजरीवाल ने इस बार रही-सही उम्मीद भी तोड़ दी?

मैं खुद आम आदमी पार्टी को उसके जन्म से जानता हूं, समझता हूं और काफी हद तक सहानुभूति रखता ‘था’। जी हां, रखता था।

यह कहना है कई सारे ‘आप’ वालंटियर्स का। बुधवार को दिल्ली की 3 राज्यसभा की सीटों के लिए आम आदमी पार्टी यानी अरविंद केजरीवाल ने संजय सिंह (आप प्रवक्ता), सुशील गुप्ता (पूर्व कांग्रेसी) और एनडी गुप्ता (पार्टी के 2 साल से सीए) का नाम घोषित किया है। इसमें पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक कुमार विश्वास का नाम ना होने से ना सिर्फ पार्टी के वॉलंटियर्स रोष में हैं बल्कि कुमार विश्वास की वाकशैली और तार्किकता को पसंद करने वाला एक बड़ा वर्ग उनकी दावेदारी खारिज होने पर केजरीवाल को दोष दे रहा है।

 

इससे भी ज्यादा रोष बाकी दो नामों पर है क्योंकि संजय सिंह तो पार्टी के कर्ताधर्ताओं में से रहे हैं और उनके नाम पर किसी को आपत्ति ही नहीं है। बाकी दो नामों में से एक सुशील गुप्ता 2013 में तो कांग्रेस की टिकट पर दिल्ली में चुनाव भी लड़ चुके हैं और सबसे ज्यादा आपत्ति इन्हीं पर हो रही है। कुमार विश्वास ने कवियों वाले अंदाज में चुटकी लेते हुए केजरीवाल ऐंड पार्टी को बधाई दी और खुद की ‘शहादत’ स्वीकार कर ली।

 

मुझे अरविंद केजरीवाल का एक इंटरव्यू याद आ रहा है, जिसमें पार्टी के अंदर उनकी तानाशाही के सवाल पर अरविंद कहते हैं कि नहीं मेरी पार्टी में मेरी ही नहीं चलती है, जब चाहते हैं मुझे योगेंद्र डांट देते हैं, कुमार की मैं सुनता हूं और प्रशांत के सुझावों पर हम काम करते हैं। आज ना तो पार्टी में कुमार बचे हैं ना ही योगेंद्र-प्रशांत। इस टिकट बंटवारे के बाद सबसे ज्यादा निराशा पार्टी समर्थकों में नजर आ रही है। कई सारे वॉलंटियर्स फेसबुक पर ‘IQuitAAP’ लिखकर विरोध जता रहे हैं। एक-दो से मैंने बात की तो कहना था, ‘हमने भी बहुत पर्दा डाला लेकिन अब नहीं कर पाएंगे’   जाहिर हो चुका है कि केजरीवाल की पार्टी भी अब बीजेपी और  कांग्रेस की तरह ही हाईकमान कल्चर पर चलती है और चुनाव के समय इसे लोकतांत्रिक दिखाने का प्रयास किया जाता है।

दिल्ली की जनता ने केजरीवाल को बीजेपी-कांग्रेस के विकल्प के रूप में खड़ा किया था लेकिन ये भी बीजपी-कांग्रेस होते गए। कहते रहे कि हम अलग हैं और उनमें ही शामिल होते गए। कुमार विश्वास के विकल्प के रूप में एक कांग्रेसी किसी को हजम नहीं हो रहा। जो आम आदमी पार्टी पहली और दूसरी बार में नए पढ़े लिखे युवाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को टिकट देती थी, आज वह बिजनसमैन को टिकट दे रही है। केजरीवाल कहते हैं कि जिसे टिकट चाहिए वह पार्टी छोड़ दे। इसका मतलब हुआ कि जो ईमानदार कार्यकर्ता अपना सबकुछ छोड़ देश में ईमानदार राजनीति स्थापित करने चले थे उनको टिकट ना देकर बाहरियों को ही टिकट मिलेगा।

अब केजरीवाल कितने भी वादें करें लेकिन यह तो धीरे-धीरे साबित होता जा रहा है कि केजरीवाल से भी उम्मीद करना बेमानी है। बीजेपी-कांग्रेस से मुकाबले के लिए केजरीवाल को अब कार्यकर्ताओं और जनता की नहीं पैसों की ज्यादा जरूरत पड़ रही है।