आदिवासियों को देशविरोधी बताना उनके आत्मसम्मान पर चोट है

हमारे देश की जनसंख्या में लगभग आठ फीसदी से भी अधिक हिस्सा अनुसूचित जनजातियों का है। लगभग दस करोड़ की आबादी वाला यह समाज आज़ादी के इतने दशकों बाद भी अपने अधिकारो को लेकर संघर्षरत है। उन्हें अपने अधिकारों के साथ-साथ भारतीयता की भी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। ये हाल तब हैं जब संविधान की पांचवी और छठवी अनुसूची में अनुसूचित जनजातियों को कई तरह के विशेषाधिकार प्राप्त हैं।

पांचवीं अनुसूची में देश के विभिन्न राज्यों के कई जिलों को शामिल किया गया हैं, जिसमें झारखंड, छत्तीसगढ़, नागालैंड,मेघालय और मिजोरम के कई जिले शामिल हैं। झारखंड में कुल तेरह जिले पाचवीं अनुसूची में आते हैं। विभिन्न राज्यों में आदिवासियों की अलग-अलग जनजातियां पाई जाती हैं। झारखंड में मुंडा आदिवासियों की बड़ी आबादी हैं। इसी तरह उडी़सा में पहाड़ी, बिहार में उरांव आदिवासी पाए जाते हैं। इसके अलावा भी आदिवासीयों की कई जनजातियां हैं। इन सभी अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक, आर्थिक, भाषायी, और सांस्कृतिक वजूद की सुरक्षा के लिए संविधान की पांचवी अनुसूची में प्रावधान हैं।

Image result for आदिवासी

जंगल पर आधारित है आदिवासियों का जीवन
आदिवासी समाज में कई सांस्कृतिक मान्यताएं हैं, उनकी जीविका जंगल पर ही आधारित है। जंगल आदिवासियों के लिए मां की तरह हैं। वे जंगल से महुआ, केंदा, शहद, जड़ी-बूटी, इमली वगैरह ले जाकर बाजार में बेचते हैं, यही इनकी आमदनी का जरिया है। जल,जंगल और जमीन पर आदिवासी समुदाय अपना अधिकार मानता है। 2006 में वन अधिकार कानून के तहत उनके पुराने अधिकारों को कुछ हद तक मान्यता भी मिली।

1996 में आदिवासी क्षेत्रों में पंचायती राज लागू करने को लेकर पेसा कानून भी बनाया गया लेकिन इन तमाम अधिकारों और कानूनों के बावजूद आज आदिवासियों की समस्याएं काफी जटिल हो चुकी हैं। सभी कानून केवल कागज़ी दिखाई पड़ते हैं। आज़ादी के इतने दशकों बाद भी अपने इतिहास, संस्कृति को बचाने के लिए आदिवासियों को लडाई लड़नी पड़ रही है। वन क्षेत्रों को विभिन्न प्रकार से बांटकर उन्हें वन क्षेत्रों सें दूर किया जा रहा है। उनकी परम्परागत व्यवस्था को सरकार द्वारा लगातार कुचला जा रहा है।

पत्थलगड़ी में इस तरह लिखे जाते हैं संदेश

क्या है पत्थलगड़ी?
उनकी पारपंरिक और पुरानी प्रथा पत्थलगड़ी को सरकार गैरकानूनी और देश विरोधी करार दे रही है जबकि आदिवासी समाज में पत्थलगड़ी एक पुरानी परम्परा हैं। पत्थलगड़ी कोई नया गांव बसने, परिवार के मुखिया के मरने पर भी वे एक पत्थर को जमीन में गाड़कर अपना संदेश लिखते हैं लेकिन हाल के दिनों में झारखंड में विशेष रूप से गांवों के मुख्य द्वार पर पत्थलगड़ी की जा रही है। सरकार से विकास को लेकर इन समुदायों में नाराजगी है। पत्थर पर वे तमाम संवैधानिक अधिकारों का जिक्र करते हैं और उनका नारा हैं, ‘न लोकसभा न विधानसभा सबसे ऊपर ग्राम सभा।’

पत्थलगड़ी वाले गांवों में हर बाहरी व्यक्ति को बिना ग्राम सभा की इजाज़त के गांव में घुसने का अधिकार नहीं होता है। अगर कोई आता है तो उसे बंधक बना लिया जाता है। लगातार सरकारी तंत्र के जरिये उनके अधिकारों को छीना जा रहा हैं और विरोध के नाम पर इस पुरानी परम्परा को देशद्रोही और गैरकानूनी करार दिया जा रहा है। यहां तक कि कई आदिवासियों को नक्सलवाद के आरोप में जेल में भी डालकर डराने की कोशिश की जा रही है। मीडिया भी लगभग इन समुदायों के प्रति अधिनायकवादी हो चला है। लोकतंत्र को लेकर इन समुदायों में काफी जागरूकता है लेकिन जितना जागरूक हुए हैं, उससे अधिक जागरूकता की जरूरत है। सरकार को इन जनजातियों की परम्पराओं और पुरानी प्रथाओं के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए। इन समुदायों के पुरखों के इतिहास को याद करने की जरूरत हैं। इनके मुद्दे अब राजनीति के शिकार हो रहें हैं।