6 दिसंबर 1992: उन्माद को नया रूप देने वाली एक तारीख

यहां मेरी बात पढ़कर अगर आप भी मुझे मुगल प्रेमी, हिंदू विरोधी, फर्जी सेकुलड़ या देशद्रोही जैसी उपाधियां देने दौड़े आते हैं तो सच कहता हूं कि आप के दिमाग में सिर्फ भूसा भरा है। हल्ला करते हुए नहीं मन में शांति से ‘जय श्री राम’ बोलिए मन को शांति मिलेगी और आंखों पर से वह पर्दा उठेगा जो आपकी आंखों पर एक साजिश के तहत डाल दिया गया है।

 

6 दिसंबर 1992 को लोगों में अचानक से भक्ति जागी थी या जनसंघ (बीजेपी) का एक नेता अपने 7 रेसकोर्स रोड पहुंचने का रास्ता तैयार कर रहा था? सचमुच लोगों को श्रीराम में इतनी आस्था आ गई थी या उन्हें रामलला के नाम पर चालाकी से इस्तेमाल कर लिया गया था? ऐसे कुछ सवाल कई बार मेरे मन में उठते हैं लेकिन उन सवालों का जवाब हर बार सिर्फ यही मिलता है कि यही तो ‘राजनीति’ की जीत है।

 

मैं अयोध्या की विवादित जमीन को कोर्ट से पहले मंदिर/मस्जिद में बांटने की जल्दी में नहीं हूं और ना ही मुझे अपना 2019 संभालना है। कमाल की बात है कि आज भी राम मंदिर-बाबरी मस्जिद मामले पर चर्चा होती है तो यह सवाल ना जाने कहां दब जाता है कि उस दौरान दंगों में मारे गए लोगों की मौतों का गुनहगार कौन है? यह एक बार भी नहीं पूछा जाता कि बाबरी मस्जिद ढांचा तोड़ने वाले कितने लोगों को सजा की हुई या उन पर क्या कार्रवाई हुई?

थोड़ा गौर से देखने पर मुझे तो ऐसा ही लगता है कि यह मुद्दा पूरी तरह से हमेशा ‘मुद्दा’ ही रखा जाएगा। इस पर चुनाव लड़े जाएंगे। मौके-मौके पर गोधरा और गुजरात होंगे। कोई लाशों पर सीएम तो कोई पीएम बनता रहेगा। कोई राजीव गांधी जैसा हर बार दोनों पक्षों को साधने में लगा रहेगा तो कोई खुलेआम मंदिर बना डालने की चुनौती देता नजर आएगा।

 

एक और सवाल है कि क्या हमेशा टीवी पर यह कहने वाले कि ‘जो भी कोर्ट का फैसला होगा हमें मान्य है’ कभी कोर्ट के फैसले को स्वीकार करेंगे। क्या मंदिर के पक्ष में फैसला आने पर मुस्लिम समुदाय आगे आकर मंदिर निर्माण में सहयोग देगा या फिर मस्जिद के पक्ष में फैसला आने पर हिंदू समुदाय ऐसी ही सकारात्मकता दिखाएग। सकारात्मकता अच्छी चीज है लेकिन इस मुद्दे पर फैसला किसी एक के पक्ष में आने की संभावना देखकर भी मेरा मन घोर नकारात्मकता और डर से भर जाता है। मेरा डर है कि मैंने 1992 तो नहीं देखा लेकिन हो सकता है कि मुझे भी वैसा ही कुछ देखना पड़ जाए या फिर हो सकता है कि मेरी लाश पर भी किसी धर्म सम्राट की कुर्सी दिल्ली पहुंचाई जाए।

 

6 दिसंबर को मैं उन्माद की तारीख इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस तारीख ने नफरतपरस्तों के मन में एक दम भर दिया कि वे जो चाहें कर सकें और बाद में मामला कोर्ट का बताकर पल्ला झाड़ लें। ऐसी स्थिति में सरकारों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया है। चाहे 1992 में रही सरकार हो या 2014 में बनी सरकार।

उन्माद इसलिए भी कह रहा हूं कि जो कुछ हुआ था वह सचमुच उन्माद ही था। एक समुदाय कानून और संविधान से ऊपर उठकर तमाम संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की शह पाकर अचानक उठ खड़ा होता है और एक ढांचे को ध्वस्त कर देता है और इसी के साथ कानून व्यवस्था भी ध्वस्त हो जाती है। राम के नाम पर रावण जैसे कार्य किए जाते हैं। कहीं कोई किसी को जलाता है तो कोई किसी को काट डालता है। किसलिए? ईश्वर के नाम पर?   उस ईश्वर के नाम पर, जिसके लिए कहा जाता है कि उसकी शरण में शांति मिलती है? यकीन मानिए बाबरी विध्वंस आस्था के नाम पर नहीं राजनीति चमकाने के लिए किया गया और आज आस्था नहीं राजनीति ही चमक रही है।