युद्ध की संभावना पर क्या कहते कुरुक्षेत्र रचने वाले दिनकर

अपनी कविता से राष्ट्रीय चेतना को आवाज देने वाले कवि रामधारी सिंह दिनकर का आज जन्मदिवस है। उनके साहित्य में अपने राष्ट्र और अपनी संस्कृति के प्रति अद्भुत प्रेम तो दिखता ही है साथ ही लोकतांत्रिक देश के नागरिकों के कर्तव्यों, उनकी मर्यादा, अधिकार और आवश्यकताओं पर भी पर्याप्त प्रकाश दीपित किया गया है। वह परंपरावादी हैं लेकिन रूढ़िवादी नहीं। उनके यहां क्रांति और परंपरा में संघर्ष है लेकिन वह किसी भी बाइनरी में नहीं हैं। किसी भ्रम में नहीं हैं। मार्क्स से लेकर गांधी तक के विचारों को आत्मसात करने के साथ वह केवल मानवधर्म को अपनी जीवन-चेतना का नेता बनाना चाहते हैं।

राष्ट्रनिष्ठ होने का पाठ दिनकर से ही आसानी से पढ़ा जा सकता है। देशभक्ति की भी शुद्ध परिभाषा दिनकर से ही सीखी जाए तो ज्यादा कल्याणकारी होगी। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है कि ध्वनि ऐसे ही नहीं निकल जाती। आजादी मिलने के बाद जनतंत्र पर बात चली। लोगों द्वारा लोगों पर लोगो के लिए शासन की बात चली। लेकिन दिनकर के अंतर्मन में लोगों से भी विशिष्ट किसान रहे। सार्थक सृजनशीलता को पूज्य मानने की भावना रही।

फेसबुक पर लोकल डिब्बा को लाइक करें।

इसलिए, उन्होंने रंगो और राजकीय प्रतीकों की राजनीति से आजाद भारत की भावना को आजाद रखने की कोशिश की और कहा कि आजाद भारत में फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं। यह अलग बात है कि दिनकर की संकल्पना अभी कल्पना की सीमा से पार नहीं हो सकी है। ऐसे में दिनकर और याद आते हैं। उनकी कविताएं और प्रासंगिक हो उठती हैं। ऐसा लगता है जैसे उनका काल ही खत्म नहीं होता।

दिनकर गांधी से प्रभावित थे इसलिए सत्य और अहिंसा पर भी उनका विश्वास जरूर रहा होगा। लेकिन, वह कायरता के समर्थक नहीं थे। युद्ध पर भी उनका स्पष्ट मत था। उन्होंने युधिष्ठिर और भीष्म के संवाद का आश्रय लेकर कुरुक्षेत्र लिखा। यह कुरुक्षेत्र द्वापर के किसी युद्ध की विभीषिका की समीक्षा नहीं थी। यह आधुनिक विश्व के दूसरे महायुद्ध पर उनका विमर्श था। उसकी जरूरत, परिणाम और दुष्परिणाम पर उनका चिंतन-मंथन था। इसमें उन्होंने बड़े सलीके और बेबाकी से युद्ध के ऊपर अपने विचार रखे हैं-

“युद्ध को वे दिव्य कहते हैं जिन्होंने,
युद्ध की ज्वाला कभी जानी नहीं है।”

राष्ट्रों की भूगोलगत महत्वकांक्षाओं के परिणाम पर उपजने वाले युद्ध को लेकर दिनकर बहुत आलोचनात्मक थे। तभी तो कुरुक्षेत्र का श्रीगणेश ही इस वक्तव्य के साथ होता है कि

“वह कौन रोता है वहां
इतिहास के अध्याय पर
जिसमें लिखा है नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढ़े कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है
जो आप तो लड़ता नहीं
कटवा किशोरों को मगर
आश्वस्त होकर सोचता
शोणित बहा, लेकिन गई बच लाज सारे देश की।”

नोटबंदी का काम कुछ बंद करना नहीं बल्कि काले को सफेद करना था?

दिनकर के अंदर करुणा थी लेकिन यह करुण बयान नहीं है। यह अनावश्यक युद्धों पर उनकी चिंता है, दुख है। वह अपनी किताब में युद्ध को लेकर मनुष्य की विवशता का तथ्य भी रखते हैं। सामान्यतः वह ओज के कवि माने जाते हैं। जिसके यहां क्षमा-शांति देने का अधिकारी वही है जिसके पास शक्ति है। उनके हिसाब से ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल है।’ या फिर ‘संधि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की।’ करुणापात्र बनना उनके यहां वर्जित है। हुंकार उनकी केवल एक पुस्तक का नाम नहीं बल्कि उनकी समस्त कविताओं का केंद्रीय भाव है।

वह राजनीति में भी रहे। सांसद रहे लेकिन किसी दल के कभी नहीं हुए। वह राष्ट्र धर्म को सर्वोपरि मानने वाले अनोखे साहित्यिक नेता थे। वह इसे इसलिए भी अविवादित और पावन ढंग से निबाह ले गए क्योंकि उनके लिए राष्ट्र की परिभाषा अलग थी। वह कोई भौगोलिक मूर्ति को राष्ट्र मानते तो शायद उनकी निष्ठा वह न होती जो यह कविता लिखते वक्त थी कि

“भूख अगर बेताब हुई तो आज़ादी की ख़ैर नहीं”

वह तो ऐसे नेता थे जो अपने प्रशंसक, मित्र और राजनीतिक नेता के खिलाफ भी तब बोलने से चूके नहीं जब उनके खिलाफ बोलना राष्ट्र के खिलाफ बोलने जैसा माना जा सकता था। वह वक्त था जब दिनकर चाहते थे कि देश को युधिष्ठिर नहीं, अर्जुन-भीम वीर का नेतृत्व मिले। अपनी चाहना को ठकुरसुहाती के जमीन के बीच दफन करने की बजाय वह संसद में ही बोल उठे-

रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर।

दिनकर व्यक्ति नहीं रहे। दिनकर एक चेतना हैं। एक राष्ट्र की चेतना। केवल भारत की नहीं, किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र की चेतना। वह वीर रस के कवि माने गए लेकिन उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति उसे मानी गई जिसमें उन्होंने प्रेम लिखा। उर्वशी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। काव्यमय दिनकर के अनेक रूप हैं। वह कहीं ठहरे नहीं। निरंतर विकासमान रहे। परंपरा-क्रांति में संघर्ष करते रहे। विज्ञान को भी सहज और गर्व भाव से स्वीकारा। स्वर्ग के सम्राटों को चेतावनी दी कि रोकिए जैसे भी हो इन स्वप्न वालों को। परंपराओं पर अभिमान था लेकिन एक मन में एक विद्रोह भी था।

यही विद्रोह दिनकर को रूढ़ियों का समर्थन करने, उन्हें अपनाने से बचा ले गया। उनका जीवन देखें तो समझ में आए कि आधुनिकता, परंपरा, राष्ट्रीय चेतना, वसुधैव कुटुंबकम और जनपक्षधरता कैसे एक ही जीवन में पाई जा सकती है। वह परंपरा और विद्रोह के साहचर्य के हिमायती ही नहीं थे बल्कि उसके अनोखे प्रयोग के प्रयोगकर्ता भी रहे। वह कहते कि परंपरा सांस्कृतिक जल को गहरा बनाती है और विद्रोह उसे चौड़ाई प्रदान करता है। उनके जीवन का संघर्ष यही रहा। यही चीज थी, जो रामधारी सिंह को दिनकर बनाती है। उन्हें राष्ट्रकवि बनाती है। छायावादी खुमार में माने जाने वाले रचनाकार को जनकवि बनाती है। परंपरा के मूल्यांकन में रूढ़ियों को बहिष्कृत करने का उनका सूत्र क्या है वह इन दो पंक्तियों से साफ स्पष्ट हो जाता है-

“परंपरा और क्रांति में संघर्ष चलने दो,
आग लगी है, तो सूखी टहनियों को जलने दो”

मनमोहन सिंह की बात मान मोदी सरकार ने घटाया कॉर्पोरेट टैक्स?