मेरे देश में दूल्हा बिकता है

काका इलाक़े के बड़े ज़मींदारों में से एक है। उनके दो बेटे और दो बेटियां हैं। बड़ा बेटा इंजीनियर है, किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है। छोटा बेटा भी इंजीनियर है। लड़कियां भी नाम रोशन कर रही हैं। बड़ी लड़की प्राइमरी स्कूल में टीचर है, छोटी भी कहीं सरकारी नौकरी कर रही है।
 
काका अपनी संपन्नता का ढिंढोरा पीटने से नहीं चूकते हैं। गांव-जवार में ये बात दूर दूर तक फैली है कि काका का बेटा लाख रूपए महीने कमाता है। काका के गांव वालों ने जब पहली बार, एक लाख कमाने वाले इंजीनियर बेटे के बारे में सुना तो तीन चार महीने तक ठीक से खाना उन्हें नहीं हज़म हुआ। लोग ज़मीन-जायदाद बेचकर अपने बच्चों को बीटेक कराने लगे। पहले गांव में शराब पानी की तरह पीया जाता था। शाम होते ही सबके घरों में सोमरस का सामूहिक वितरण शुरू हो जाता लेकिन काका के परिवार की संपन्नता ने सबको सचेत कर दिया। शराब पीकर टुन्न रहने वाले गांव के लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। ये सब काका का कमाल था।
 
हैरत की बात यह थी कि जब तक काका के बेटे की शादी नहीं हुई थी तब तक हर छह महीने के बाद, बेटे की कमाई में तीस हज़ार का इजाफ़ा हो जाता था। दिन दूनी रात चौगुनी वाली कहावत, काका के घर जाकर ही चरितार्थ होती थी।
 
दरअसल चार साल पहले तक काका, बेटे की कमाई को बढ़-चढ़ कर इसलिए बताते थे कि उनके बेटे की शादी नहीं हुई थी। शादी के लिए जो रिश्ते वाले आ रहे थे उनकी हैसियत काका से कम थी। भला काका कैसे ऐसे लोगों से रिश्ता कर लेते? काका के हैसियत का कोई परिवार ज़िले में तो था नहीं, रिश्ता किसके यहां करते? किसी के पास पैसा था तो ख़ानदान नहीं ठीक नहीं था। खेती कम थी। अब काका तीस चालीस बीघे वाले किसी मामूली आदमी के यहां कैसे बेटे की शादी कर लेते। काका को तो पता था कि इतने खेत तो दहेज़ के पैसे इकट्ठे करने में ही बिक जाएंगे।
 
काका सामाजिक मंचो पर अक्सर कहते कि दहेज़ समाज का कोढ़ है। इस कोढ़ का इलाज करना ज़रूरी है। समाज के लोग लालची हैं, भेड़िए हैं। बोलते कुछ हैं करते कुछ हैं। काका महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते थे। सामाजिक समता पर बहुत अच्छा प्रवचन देते थे।
 
काका को बोलने का बहुत शौक़ है। पुराने कांग्रेसी नेता हैं। काका के कुर्ते-पायजामे में नील-टीनेपाल बरहो मास लगा रहता है। जब कांग्रेस का इतिहास बताते हैं तो कई बार लगता है कि काका ही ओ.एच ह्यूम हैं, काका ही नेहरू हैं। देश की ग़ुलामी से लेकर आज़ादी तक का सफ़र काका बहुत ख़ूबसूरती से समझाते हैं।
 
एक वक़्त तक काका की बातों को मैं बहुत ध्यान से सुनता था। काका की उच्च आदर्शवादी बातें मुझे बहुत अच्छी लगती थीं।
जब बात अपने बेटे की आई तो काका लड़की वालों से लाखों दहेज़ मांगने लगे। कुछ लोग तैयार भी हुए दहेज़ देने के लिए लेकिन लड़की पसंद नहीं आई। इंजीनियर बेटे की बहू तो कम से कम फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली होनी ही चाहिए। बेटा हाई क्लास स्टैंडर्ड वाला तो बहू देहाती कैसे चलेगी। काका कहते भी थे कि मेरा बेटा हवाई हवाई जहाज़ से ही आता जाता है। अब किसी ऐसी लड़की से तो शादी नहीं करेंगे न कि जिसके पैर एअरपोर्ट पर पहुंचते ही कांपने लगें।
 
काका वर्षों तक परेशान रहे। एक दिन काका के घर रिश्ता लेकर काका के हैसियत के बाराबर का परिवार आया। बराबर क्या बीस। लड़की केमेस्ट्री से डॉक्टरेट कर चुकी थी। काका सुबह सुबह घर आए। वह ऐसे ख़ुश लग रहे थे कि जैसे प्रधानी का चुनाव निर्विरोध जीत गए हों।
 
घर आते ही मम्मी के हाथ में होने वाली बहू की सीवी थमा दी और कहा देखिए डॉक्टर बहू मिल रही है, सीवी देखिए।
 
घर पर मुक़दमें की फ़ाइलें आती थीं, सीवी क्या जाने मम्मी? मम्मी ने कहा ऐसे शुभ मौके पर मुक़दमा कौन लाता है? लड़की की फ़ोटो दिखाइए।
काका ने कहा मुक़दमे की फ़ाइल नहीं है, यह लड़की के अकादमिक उपलब्धियों का दस्तावेज़ है। पढ़िए इसे, फ़ोटो भी इसी में है।
मम्मी ने मुझसे चश्मा मांगा। चश्मा तो नहीं मिला लेकिन सीवी मिल गई। मैंने कहा मम्मी मैं पढ़ता हूं। फ़ाइल खुली तो पन्ने ही पन्ने नज़र आए। वज़न किसी मिनी किताब के बराबर।
 
पता नहीं कितनी पढ़ाई की थी भाभी जी ने। लखनऊ विश्वविद्यालय से कमेस्ट्री में पीएचडी और ऑल टाइम गोल्ड मेडलिस्ट। देश की कई प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिकाओं में उनके आलेख छप चुके थे।
नैन नक्श भी बेहद ख़ूबसूरत। लड़की के क़दम एअरपोर्ट क्या, युनाइटेड नेशन असेंबली में भी न कांपे।
 
काका ने पूछा भाभी पसंद आईं न बेटा। मैंने काका का जवाब नहीं दिया बल्कि उनसे पूछ बैठा, काका! भइया ने क्या किया है? काका ने शान से कहा कि बीटेक।
मैंने पूछा, बस? मास्टर्स नहीं किया है ? उन्होंने कहा कि लाखों कमाता है फिर अब क्या करेगा पढ़ के?
 
कुछ और बोलता इससे पहले मम्मी ने मुझे चाय लाने के किचन में भेज दिया। काका, मम्मी से बताने लगे कि अट्ठारह लाख दहेज़ दे मिल रहा है और एक क्वालिस कार। काका सब कुछ बहुत गर्व से बता रहे थे। मुझे एहसास हुआ दहेज़ इकलौती ऐसी भीख है, जिसे ज़्यादा पाकर भिखारी को गर्व होता है।
 
काका जब जाने लगे तो मैंने काका से कहा, काका अगर मैं लड़की की जगह होता तो इस रिश्ते को कभी होने नहीं देता। लड़की को अपने स्तर के लड़के के साथ शादी करनी चाहिए। भइया नॉर्मल बीटेक हैं। सिंपल ग्रेजुएट। हज़ारों लड़के ज़िले में ही होंगे। मगर केमेस्ट्री से डॉक्ट्रेट करने वाले तो शायद गिनती के हों। मुश्किल से दो-चार।
 
इसके बाद भी अगर वो भइया के साथ शादी करने के लिए तैयार हैं तो आप इतना दहेज़ क्यों मांग रहे हैं? वह तो भइया पर एहसान कर रही हैं कि उनके कम पढ़े लिखे होने बावजूद भी शादी करने के लिए तैयार हैं। अगर दहेज़ शादी में ज़रूरी है तो आप ही दे दीजिए उनके घर वालों को।
 
काका सन्न रह गए। मुझसे उन्हें ऐसी ऊम्मीद नहीं थी। वे मुझे बहुत मानते थे। उनकी नज़र में मुझसे संस्कारी बच्चा कोई था नहीं।
काका ने कहा जब बड़े हो जाओगे तो समझ जाओगे। अभी बच्चे हो। हालांकि तब मैं लॉ के चौथे सेमेस्टर में था। इंटर पास किए लगभग दो साल हो गए थे। मतलब बच्चा तो नहीं था।
 
ऐसे समाज में बहुत सारे काका हैं। हर लड़का शादी से पहले कलेक्टर होता है। लाखों में खेलता है। उससे योग्य लड़का आसपास में नहीं देखने को मिलता। मां-बाप लड़के की जितनी तारीफ़ हो सकती है रिश्तेदारों में करते रहते हैं। लड़के का रेट इससे बढ़ता है। मुंहमांगा दाम मिल जाता है। बेटा अच्छा उत्पाद है, मंहगे दाम में तो बिकना ही चाहिए। भले ही लड़का घनघोर निकम्मा हो लेकिन शादी से पहले तक तो वो राजकुंवर ही है। लड़के की सच्चाई तो मां-बाप जानते हैं, लड़की के घर वाले शादी होने से पहले तक क्या जानें?
 
लड़की वाले इस भ्रमजाल में उलझे रहते हैं दहेज़ देंगे तो लड़की सुखी रहेगी। दूल्हा ख़रीद लेते हैं लेकिन दूल्हे को ग़ुलाम नहीं बना कर रखते, लड़की ही दासी बन जाती है। पति परमेश्वर पर सब कुछ न्योछावर। बिटिया बोझ है, विदा कर दो घर से। कोई लड़का मिले नौकरी-चाकरी वाला विदा करो उसके साथ। मां-बाप तभी निश्चिंत रहेंगे।
 
लड़की की योग्यता किस काम की। कौन देखता है। लड़के वालों को दहेज़ चाहिए। लड़के की योग्यता उसका लड़का होना ही है।
ये सब तब तक होता रहेगा जब तक लड़कियां रिश्ते रिजेक्ट नहीं करेंगी। मां-बाप की सारी बातें मानने के लिए नहीं होतीं। थोड़ी बग़ावत ज़रूरी हैं। चौखट से बारात लौटाना ज़रूरी है। सगाई तोड़ने से ज़िंदगी नहीं टूटा करती। दूल्हा ख़रीद लेने से प्यार नहीं मिल जाता। रिश्तों के भरम से बाहर निकलने का सही वक़्त है। जिस घर में रिश्ते की सौदेबाज़ी होती हो वहां रिश्ता जोड़ना ठीक है क्या?
 
हां! बताना भूल गया काका और काकी ख़ुश नहीं हैं इन दिनों। बड़ी बहू को घर से कोई मतलब नहीं है। गांव भर में चर्चा फैल गई है।
अब काका का छोटा बेटा भी लाख रूपया कमाने लगा है। भले ही काका की दशा और दिशा बिलकुल न बदली हो। तलाश हो रही है नए ख़रीदार की। इस बार दूल्हे पर भी जीएसटी लग गया है। गांव-जवार में फिर शोर मचा है लाख रुपया कमाने वाले इंजीनियर की शादी होने जा रही है। रिश्ते आ रहे हैं। बोलियां लग रही हैं।
 
उम्मीद करता हूं कि इस बार काका के बेटे को ख़रीदार न मिले। मिल भी जाए तो लड़की बिकाऊ दूल्हे से शादी करने से इंकार कर दे।
काश! काका की ये फसल न बिके। किसी लड़की में काका के इस प्रोडक्ट को दुत्कारने का साहस आ जाए। मोलभाव भाव वाला रिश्ता किसी को रास न आए। जानता हूं ऐसा होना नामुमकिन है….हमारे यहां दूल्हा बिकता है…ख़रीदार तो मिल ही जाएगा।